Saturday, March 31

दिल की आरज़ू

लम्हात-ए-याद-ए-यार से निकली दिल की आरज़ू को कुछ यूँ अर्ज किया है...




वोह नहीं मेरा, फिर भी शाम-ओ-सेहर,
उस नुक्ताचीन से गुफ्तगू करने को जी चाहता है...

वोह नहीं मेरा, फिर भी पल पल हर पल,
उस निगार की एक झलक पाने को जी चाहता है...

वोह नहीं मेरा, फिर भी ख्वाबों से निकाल,
उस हबीब को हम-आगोश करने को जी चाहता है ...

....क्या करें के बस उस आशना  के आगोश में खो जाने को जी चाहता है ...

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उनकी यादों के कारवां को नम पलकों से गुजरते देखते हैं यूँ ...
के जैसे कभी ख़्वाबों में भी उनकी रफाकत के हक़दार न थे हम...


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सहर-ओ-शाम  होती हैं कुछ नयी कुछ पुरानी बातें उनसे...
माह-ए-शब्-ए-चार को मिलती हैं कुछ हसीन सौगातें उनसे...
अहाल-ए-दिल उस परस्तार के लिए निकलती है हर कलाम-ए-रूह...
लेकिन आलम कुछ यूँ है के फिर भी अरसों में होती हैं मुलाकातें उनसे...

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शब्--उल्फत में जब रूबरू हुए उनसे...
तो मुस्कुरा रहे थे लब, बातों में उनकी नुक्ता--शरारत थी...
पर जाने हर पल क्यों ऐसा लगा...
कि उस शेहदायी की निगाहों में, एक अनकही बेचैनी की आहट सी थी... 

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