Monday, February 27

बेजुबान दिल...


बेजुबान दिल एक दास्ताँ कहा चाहता है...
ज़माने के बंधनों को तोड़ खुमार-ए-इश्क फैलाया चाहता है...
समझाए यह कैसे उन्हे अपनी नादानी का सबब...
बस दिल-ए-नादाँ तो नफ्स-ए-इबादत का नगमा-ए-मोहब्बत सुनाया चाहता है...

बेजुबान दिल मोहब्बत के कलाम पढ़ा चाहता है...
ज़माने के बंधनों को तोड़ हुस्न-ए-इश्क को जईफ जताया चाहता है ...
समझाए यह कैसे उन्हे आब-ए-हुस्न तो एक पैमाना है ...
बस दिल-ए-नादाँ तो जज्बा-ए-एहसास का एक जाम छलकाया चाहता है...

बेजुबान दिल एहसास-ए-इश्क में डूबा चाहता है ...
ज़माने के बंधनों को तोड़ उनके आगोश में सोया चाहता है ...
समझाए यह कैसे उन्हे गिले-शिकवे नहीं है उनसे कोई ...
बस दिल-ए-नादाँ तो फिजा-ए-जूनून में सुरूर-ए-इश्क का एहसास पाया चाहता है...

बेजुबान दिल उन्हे अपनी निगाहों से निहारा चाहता है ...
ज़माने के बंधनों को तोड़ लबों की मासूमियत को चूमा चाहता है ...
समझाए यह कैसे आब-ए-चस्म की गहरायों का सबब  ...
बस दिल-ए-नादाँ तो पयाम-ए-रूह इस कलाम-ए-इश्क से उन तक पहुँचाया चाहता है...

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