Wednesday, February 15

"झंझावात"

सन्नाटे भरी स्याह रात
उमड़े हैं मन में कुछ सवाल

सूना है क्यों
ये सितारों भरा अम्बर
क्यों भीगा है
मेरा यह दामन
क्यों है अनगिनत तारों
में यह चाँद अकेला
क्यों थमी है सर्द बयार में
साँसों की ये डोर
क्यों है आँखें नम
और तापी हुई है आह
क्यों हैं सर्द तुम्हे थामे
हमारे यह सुर्ख हाथ

कुछ गुफ्तगू नहीं
तो लम्हे गिनते हैं क्यों
जानते हैं अकेले हैं जीना
फिर सहारा ढूंढते हैं क्यों
इल्म है आहट दे, आओगे नहीं
फिर भी यूँ राह तकते हैं क्यों

नहीं जानते हम
इन सवालों के जवाब
सिर्फ इतना है पता
न रहा है धैर्य अब
हर कतरा बटोरने का
गिनती है
हमारी अनेकों में
पर न रही चाह
अब अव्वल होने की
थक चुके हैं
हर लम्हा, हर कदम
इन्तेज़ार में
अलविदा कह
मुक्त किया चाहते हैं
तुम को, खुद को
टूटते हुए रिश्तों के
इस झंझावात से ...

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