Wednesday, February 15

खुदगर्जी


कुछ रोज पहले जब अपनी जिंदगी और रिश्तों के मायने समझने की कोशिश कर रही थी, तब खुद जिस कश्मकश से गुजरी वोह इस कलाम में उभर आई... शुरू में सिर्फ दो पंक्तियाँ थी, पर जैसे ही रात ढली और सुबह हुई तो एक कविता बन गयी... लिखूं, या न लिखूं की कश्मकश तब भी थी और आज भी कायम है, फिर भी अर्ज कर रही हूँ...


कहते हैं वोह...
के हम खुदगर्जी की इन्तेहाँ करते हैं...
अब क्या कहें उनसे...
... जो इज़हार-ए-इश्क किसी और के लिए,
 हम से बयान करते हैं...

कहते हैं वोह...
के हम खुदगर्जी की इन्तेहाँ करते हैं...
अब क्या कहें उनसे...
... जो पहलू में किसी और के होने का मंज़र लिए,
 हमें आगोश में लिया करते हैं...

कहते हैं वोह...
के हम खुदगर्जी की इन्तेहाँ करते हैं...
अब क्या कहें उनसे...
... जो पलकों पर ख्वाबों को उनके सजाये,
 दामन में हमारे सर रख सो लिया करते हैं...

कहते हैं वोह...
के हम खुदगर्जी की इन्तेहाँ करते हैं...
अब क्या कहें उनसे...
... जो लबों पर उनका नाम लिए,
 हमसे मोहब्बत का इज़हार किया करते हैं...

कहते हैं वोह...
के हम खुदगर्जी की इन्तेहाँ करते हैं...
अब क्या कहें उनसे...
... जो हमारे वजूद पर
हर कदम बेवजह कहर ढाया करते हैं...


... और फिर भी कहते हैं वोह, के हम खुदगर्जी की इन्तेहाँ करते हैं !!


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