Tuesday, July 14

रिश्तों की गहराइयाँ ....


कुछ रिश्तों की गहराईयों को हम समझ ही नहीं पाए हैं...

इस कदर डूबे की कभी उबर ही नहीं पाए हैं...
चाहत तो बहुत कुछ कहने की थी उनसे...
क्या कहें इस कोशिश में कुछ ऐसे खोये...
कि ना तब डूब पाए थे, ना अब उबर ही पाए हैं...

आँखों की  चिलमन में बसे हो तुम इस कदर...
खुली हों या बंद तुम ही नज़र आते हो...
तुम्हारे ख्यालों में इस कदर डूबे हैं...
कि ना तब सुकून से जाग पाए थे, ना अब तक चैन से सो ही पाए हैं...

नज़रें जो मिली तो सितारे भी चाँद नज़र आने लगे...
शमा-परवाने की मिचौली में, परवाने सज़ा पाने लगे...
आगोश ने तुम्हारे यूँ तपा दिया है हमको...
कि ना तब जल पाए थे, ना अब तक बुझ ही पाए हैं...

तुमसे मिलने की ख्वाइश में दिन गुज़ार रहे हैं...
पर शब्-ए-इन्तेज़ार कटती नहीं...
तिनका तिनका जिंदगी यूँ समेटते चले आये हैं...
कि ख्वाबों को ना तब समझ पाए थे, न अब तक संजो ही पाए हैं...

तम्मन्ना की थी के तेरे पहलू में बीते यह सफर...
कैसे कहें क्या चाहते हैं तुमसे ए जिंदगी...
बस इश्क की राहों पर खामोशी से यूँ चले जा रहे हैं...
कि न तब क़दमों को रोक पाए थे, ना अब तक ठीक से चल ही पाए हैं...

कुछ रिश्तों की गहराईयों को हम समझ ही नहीं पाए हैं ...
एहसासों की कश्ती में यूँ सवार थे कभी...
कि न तब डूब पाए थे, ना अब तब उबर ही पाए हैं...
कुछ रिश्तों की गहराईयों को हम समझ ही नहीं पाए हैं...


"...कुछ रिश्तों की गहराईयों को हम समझ ही नहीं पाए हैं..."