Saturday, March 31

दिल की आरज़ू

लम्हात-ए-याद-ए-यार से निकली दिल की आरज़ू को कुछ यूँ अर्ज किया है...




वोह नहीं मेरा, फिर भी शाम-ओ-सेहर,
उस नुक्ताचीन से गुफ्तगू करने को जी चाहता है...

वोह नहीं मेरा, फिर भी पल पल हर पल,
उस निगार की एक झलक पाने को जी चाहता है...

वोह नहीं मेरा, फिर भी ख्वाबों से निकाल,
उस हबीब को हम-आगोश करने को जी चाहता है ...

....क्या करें के बस उस आशना  के आगोश में खो जाने को जी चाहता है ...

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उनकी यादों के कारवां को नम पलकों से गुजरते देखते हैं यूँ ...
के जैसे कभी ख़्वाबों में भी उनकी रफाकत के हक़दार न थे हम...


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सहर-ओ-शाम  होती हैं कुछ नयी कुछ पुरानी बातें उनसे...
माह-ए-शब्-ए-चार को मिलती हैं कुछ हसीन सौगातें उनसे...
अहाल-ए-दिल उस परस्तार के लिए निकलती है हर कलाम-ए-रूह...
लेकिन आलम कुछ यूँ है के फिर भी अरसों में होती हैं मुलाकातें उनसे...

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शब्--उल्फत में जब रूबरू हुए उनसे...
तो मुस्कुरा रहे थे लब, बातों में उनकी नुक्ता--शरारत थी...
पर जाने हर पल क्यों ऐसा लगा...
कि उस शेहदायी की निगाहों में, एक अनकही बेचैनी की आहट सी थी... 

Friday, March 23

कुछ यूँ ही अर्ज किया है...


सहर होते ही आगोश-ए-तस्सव्वुर की गिरह से जो निकले...
तो उनके मुस्कुराते खुर्शीद-वश का दीदार हुआ...
देखते, मुस्कुराते, निगाहों से बातें करते, पल कुछ यूँ बीते...
इल्म ही न हुआ के ख्वाबीदा थे या दर-हकीकत पैकर-ए-महबूबी हुआ...

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हर्फ़-ए-अश्क गर रोज लिखा करते...
इन पन्नों में कायनात सिमट गयी होती...
खुदा-ए-मौत का गर यूँ करते सजदा...
अब तक शहादत नसीब हो गयी होती...

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न चाहते हुए भी रश्क होता है उनसे...
जिन्हें बेपनाह मोहब्बत उनसे नसीब होती है...
आलम यह है कि हर पल इबादत हम किये जाते हैं...
और आगोश-ए-जन्नत उन्हें उनसे नसीब होती है...

Saturday, March 3

इल्तज़ा


उनको चाहना, एक आदत हो चली है,
यादों की महक, एक इबादत हो चली है,
उनका करीब आना ही, रूह को महका गया है,
कुछ पलों का साथ, आबाद कर गया है,

करीब आने की, एक गहरी ख्वाइश जाग उठी है,
तुमको तुम्ही से चुराने की, तमन्ना जाग उठी है,
रूबरू हों जल्द ही, यह आरजू करते हैं...
ख्वाबों की इस कश्ती को साहिल तक लाने की इल्तजा करते हैं...

अश्क...



अश्कों को हम अपने समझाते रहे...
खुशनुमा महफ़िल में ना आतनहाइयों में आया करो...
ज़माने से छुपे ग़मों की यूँ नुमाइश ना करवाया करो ...
निगाहों से छलकती उस नमी का कुछ यूँ जवाब आया था ...
महफ़िल तो खूब सजी थीऐ ज़ालिम ...
हुस्न और जाम का जश्न भी था सजा हुआ...
सिफर की ओर अकेले तकते हुए जो देखा तुझे ...
दर्द के सफर में साथ देने का मन हो आया था ...

एक सदा...


एक दोस्त ने फिर ज़माने से परे होने का फैसला किया तो हमारी ओर से यह पैगाम रुखसत हुआ... 

आब्रतारी से निकल, दीदार--आफताब का इन्तेज़ार रहेगा...
अहाल--दुनिया को हो हो, इस परस्तार को हर पल आपका इन्तेज़ार रहेगा ...



जवाब आया...
इन्तेज़ार गर करना है तो खुदा के दीदार का कर...
फ़कीर के इस्तकबाल से भला किसी को क्या मिला है...


हमारा कहना कुछ यूँ था...

आँखें मूंदे, सालों से खुदा की इबादत का अंजाम जी रहे थे ...
सोचा, चश्म--तर से अब एक फ़कीर का ही सजदा कर जी लें... 


एक रूखा सा पैगाम उनकी तरफ से आया...

फ़कीर का सजदा ना कर के फ़कीर की झोली खाली है...
गर गम--गफलत में जीना है तो शैतान को याद कर...


इस बेरुखी पर हमारा जवाब कुछ यूँ था...

इबादत गाह में सजदा कर देख लिया...
अब फ़कीर के दर माथा टेकने की बारी है ...
खुदा से ही मांगी थी मन्नत--मोहब्बत आपकी खातिर...
इन्तेज़ार कर रहे हैं, पर झोली अब भी खाली है.... 


उनके जवाब का इन्तेज़ार रहेगा ...