Wednesday, December 7

मोहब्बत की राहों से गुजरी कुछ परछाइयाँ...

मोहब्बत से जुड़े इन जज़्बातों के बिखरे हुए मोतीयों कोचुन चुन कर इकट्ठा कर यह सफहा तैयार हुआ है ... अर्ज हैं ... कुछ पुराने कुछ नए जज्बातों की एक डोर...


जिंदगी गुजार गयी, रिश्ते कायम करते...
मुड मुड जो देखा, तो कहीं मोहब्बत का निशाँ ही न था...
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जब भी सोचा था न सोचेंगे फिरऐ काफिर तेरे बारे में...
कमबख्त इस दिल नेकोई न कोई बहाना कर लिया...
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बिखरे सपनों से आँखों में नमी सी है...
यादों का आसमांउम्मीदों की ज़मीन सी है...
यूँ तो जिंदगी में मायने बहुत हैंलेकिन ...
जाने क्यों एक साहिल की कमी सी है...
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अपनों से प्यार की गुज़ारिश नहीं होती...
गैरों से वफ़ा की सिफ़ारिश नहीं होती...
नाम पलकों के इशारे समझ सको तो समझ जाओ...
वरना मोहब्बत भरे दिल के टूटने की आवाज़ नहीं होती...
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तिनका तिनका टूट कर बिखर रहे थे हम ...
तन्हा तन्हा अपने आप में सिमट रहे थे हम ...
वीरानीओं ने कुछ यूँ आगोश में लिया...
कि चाह कर भी संभल नहीं पा रहे थे हम....
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निगाहों से उनकी ज़माने देखे,
पर निगाहों में उनकी रूह-ए-मोहब्बत न दिखी...
आगोश में उनके तो हम हो लिए,
पर कसक-ए-मोहब्बत खत्म होती न दिखी...
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इश्क की हवाएँ चलीतो कुछ सरसराहट सी हुई...
एहसास जागेके उनके आने की आहट सी हुई...
अपनी नज़रों को उनकी काफ़िर निगाहों से मिला  पाए...
आगोश में उनके आने सेएक गुदगुदाहट से जो हुई.
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इरादों से उनके थे हम बेखबर,
नज़ारा-ए-मोहब्बत निहारते हुए...
दर्द-ए-दिल के दर्द का इल्म जब हुआ,
वादियों में सिर्फ हम ही थे तन्हा खड़े हुए...
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जिंदगी की हर राह पर, मोहब्बत तलाशते रहे...
पर आलम यह है आज भी, के इन्तेज़ार में ही गुजार रही है...
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तकते हैं उन राहों को जो गुजर गयी
सोचते हैं क्या खोजने चले थे...
लेखा जोखा तो बहुत है फरमाने को,
क्या हासिल हुआ है वोह जो पाने चले थे...
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परवाने इश्क में न जाने, 
क्या पाने क्या खोने की ख्वाइश किया करते हैं...
हम तो वोह आशिक हैं ज़ालिम,
जो मौत के अंजाम पर भी तवज्जु नहीं दिया करते हैं...
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इस तन्हाई का सबब ढूँढने में शायद,
हमें ज़माने गुजार जाएँगे...
मोहब्बत के कुछ पल ढूंढते हुए शायद,
हमें ज़माने गुजार जाएंगे ...
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अंदाज़-ऐ-मोहब्बत बयान करते हो एक अरसे के बाद...
यादों की इबादत करते हो पैमाने के साथ...
मुड मुड देखते हो यादों के उस काफिले को...
जो इजहार-ऐ-इश्क में हुआ होता...
तेरा जो आज हैऐ मुसाफिर ...
शायद उस हसीन के साथ हुआ ही न होता...
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हमें अश्कों से ज़ख्मों को धोना नहीं आता... 
मिलती है ख़ुशी तो उन्हें खोना नहीं आता... 
सह लेते हैं हम हर ग़म मुस्कुरा कर... 
तो लोग कहते हैं की हमें रोना नहीं आता...
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दर्द क्या होता है बताएँगे किसी रोज़,
कमाल की एक ग़ज़ल सुनायेंगे किसी रोज़,
उड़ने दो इन परिंदों को आज़ाद फिज़ाओ में,
हमारे हुए तो लौट के आएंगे किसी रोज़...
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तूफ़ान-ऐ-इश्क के हम कायल हो गए...
नज़राना--तबाही जो हमारी नज़र कर गया...
लेकिन काबिल--तारीफ़ तो हमारी रूह रही...
जो एक पैगाम-ऐ-इश्क में समां गयी...
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मेरे वजूद में काश के तुम उतर जाओ...
मैं देखूं आइना और तुम नज़र आओ...
तुम हो सामने और वक़्त ठहर जाए...
यह ज़िन्दगी तुम्हे यूँ ही देखते हुए गुज़र जाए...
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किसी को नज़र अंदाज़ किया नहीं जाता ...
जिन्हें भूल  पायें उन्हें याद किया नहीं जाता...
यादें तो गवाह होती हैं उन लम्हों की...
जिन लम्हों को दोबारा जिया नहीं जाता...
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बदल गयी हैं राहें लेकिन हम खोये नहीं,
दर्द था दिल में लेकिन फिर भी हम रोये नहीं,
काश कोई होता हमारा जो पूछ लेता हमसे,
जाग रहे हो किसी के लिए या किसी के लिए सोये नहीं!
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हमारे ज़हन से उनकी काफ़िर निगाह नहीं हटती...
दीदार--यार से मिलने की कसक नहीं मिटती...
आगोश में उनके आने की बेताबी कुछ ऐसी है...
कि इन्तेज़ार के लम्हों की डोर खत्म ही नहीं होती...
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Thursday, October 13

पैगाम


एक दोस्त की याद जब हमें आई तो यह पैगाम उनकी ओर रुखसत किया...


"जिंदगी राज़ है तो राज़ रहने दो,
अगर है कोई ऐतराज़ तो ऐतराज़ रहने दो,
अगर आपका दिल कहे हमें याद करने को,
तो दिल से ये न कहना, कि आज रहने दो..."


उनकी ओर से जवाब आया...


जिंदगी के राज़ का लुत्फ़ उठाना सीखो...
हर गम में मीठा एहसास देखो...
न यूँ ऐतराज़ में हमारे सर्द बयार ढूंढो...
कि दिल में हमारे जो जज़्बा है, तुम उसकी खूबसूरती देखो..."



सुबह के पहले पहर में हमारा जवाब कुछ यूँ था...


"जिंदगी से न कोई गन न शिकवा है हमें...
इन ग़मों से न गुजारते तो उन चंद खुशियों का एहसास न हुआ होता...
सर्द हवाओं का भी एक अलग लुत्फ़ है यारा...
दूर न हुए होते तो जज़्बातों की खूबसूरती का इल्म न हुआ होता..."


इंतज़ार शेष है...


... मुद्दतों के इन्तेज़ार के बाद उनके कलाम का आगाज़ कुछ इस तरह हुआ...


क्या कहें आपसे सितमगर...
इतने दूर रहकर भी दिल को छू जाते हो...
ये यूँ कहें कि...
अपनी आवाज़-और-नज़र से कायनात दिखा जाते हो...



... सोच में डूबें हैं ...

Wednesday, May 18

अर्ज़ किया है...

मुड़ के जो देखा हमने तो ज़माने के गम दिखे ...
खुशियों में सिसकियों के कारवां दिखे ...
आँखें मूंदें ग़मों की इस कदर इबादत करते रहे...
के इल्म ही ना रहा के खुशियों के जनाज़े निकलते रहे ...
थमे जो शाम-ऐ-ज़िन्दगी में, तो एहसास-ऐ-रूह हुआ ...

तो गुज़िश्ता-ऐ-बयान छोड़, मैं आखिर रुख-ऐ-मुस्तकबिल हुआ ...