Saturday, April 21

आक्रोश



जिंदगी... हर कदम... एक नयी... जंग है...


सुलगते हैं लफ्ज़ लबों पर यूँ...
दिल-ए-हाल बयान करें किस से...
काश के होता दिल के करीब कोई ...
समझता कोई हमें एक नज़र देख कर सिर्फ...
कैसे अर्ज करें, के मेरे आतशीं-ए-आक्रोश की कोई भाषा ही नहीं...

आ कर चले जाते लोग एक पड़ाव समझ कर...
रोम रोम कुर्बान करते हैं हम...
और कतरा कतरा ले जाते हैं वोह...
रोंद देते हैं इस दिल का हर मंज़र...
कैसे बताएं, के मेरे तल्ख़-ए-आक्रोश की कोई परिभाषा ही नहीं...

कोई ख्वाइश नहीं इस जिंदगी से अब...
समय बस गुजार जाये किसी कदर...
तमन्ना तो बहुत थी चंद खुशियाँ बटोरने की...
न मिला वोह हमसाया जिसकी तलाश थी..
कैसे जताएं, के मेरे हुज्न्ल-ए-आक्रोश की कोई तस्वीर ही नहीं...

दायरों में बांधें बस सिसकते हैं हम...
खुस में सिमट सिमट घुटते हैं हम...
घुटन छोड़, बंधन तोड़ जीना चाहते हैं हम...
जिंदगी में एक आश्ना, एक मकाम पाना चाहते हैं हम...
कैसे किस से ज़ाहिर करें, के मेरे तेश-ए-आक्रोश की कोई सीमा ही नहीं... 

Friday, April 20

उस शहदायी की याद में पिरोये कुछ मोती...

किस परस्तार का दिल, उसे ज़ेहन से भुलाने के लिए याद करता है...
यादों की डोर से खिंचा चला आये वोह शेहदायी, हर पल ये ही दुआ करता है...
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न खुदा को पाने की तम्मन्ना है हमें...
न दीवानगी की उनसे कोई उम्मीद...
है तो सिर्फ अरमानों की इस मय्यत पर...
उस फिदायी की एक नज़र के कफन की उम्मीद...
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हमने न कभी तुमसे मुलाकात का वादा चाहा...
दूर रह कर तुम्हे तुमसे भी ज्यादा चाहा...
याद आये और भी शिद्दत से तुम ...
भूलने का तुम्हे जब भी इरादा करना चाहा...
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पल पल हँसते, मुस्कुराते, 
उसके हर खुशनुमा, गमजदा लफ्ज़ को हम तवाज्जू दिए जाते है...
ए  सौदाई, एक अश्क भर के लिए, 
निगाहों में बसी इस रंज-ए-फुर्वान को एक नज़र तो दे जाते...
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इश्क करने का गुनाह हमने किया उनसे, जो न हमारे थे और न होंगे कभी...
मर मिटना तो हमारी फितरत में था, के बर्बादी का सबब वोह कभी थे ही नहीं...
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लम्हा-ए-हस्ती इस इन्तज़ार में बिताये जाते हैं हम...
के कभी किसी एक पल पर उस हरजाई की इज़हार-ए-मोहब्बत मर्कूम होगी...

कफस-ए-उल्फत से अर्ज किया है...



लघ्जिश-ए-मोहब्बत जो हुई हमसे उसे माफ करना...
हज्ज-ए-वस्ल में ज़ाहिर-ए-दर्द किया हो तो माफ करना...
महराब-ए-जान से तो न कभी भुला पाएंगे ए फिदायी तुझे...
तेरी मोहब्बत  की आस में धडकनें थम जाएँ तो माफ करना...

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अपना ले मुझे या खुद को पराया कर दे...
ए बिस्मिल मेरी मोहब्बत का कुछ तो फैसला कर दे...
रेगिस्तान सी बंजर यह जिंदगी हुई जाती है...
ए दिलसिताँ दफना दे रेत में ये नखलिस्तान बना दे...
एक तरफ़ा मोहब्बत कर थक चुके हैं हम...
ए शेह्दायी बेवफाई कर या थोड़ी वफ़ा का ही इल्म करा दे...
कब तक यूँ ऐतबार करेंगे ए काफिर तुझ पर...
भुला दे उसे या हमें ही इश्क में फ़ना होने कि इजां दे दे...