Wednesday, September 16

अर्ज़ है ...




चलने का हौसला नही और रुकना मुहाल कर दिया
इश्क के इस सफर ने तो मुझको निढाल कर दिया
मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई
उसने मगर बिछड़ते वक्त और सवाल कर दिया…
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बेहाली का आपकी सबब क्या है...
यह हम नहीं जानते...
गौर सिर्फ़ इतना करना की ...
कहीं कोई बेख़याली ना हो जाए ...
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उन निगाहों की शरारत कुछ ऐसी रही...
उन लबों की मुस्कराहट कुछ ऐसे रही...
चाह कर भी कुछ कह ना पाए हम...
वोह मुलाकात कुछ ऐसी रही...
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हम तुम और कॉफी के दो पैग ...
कुछ तुम अर्ज़ करना कुछ हम फरमाएंगे ...
कॉलेज के इन कोर्रिडोर्स से निकल कर ...
कुछ पल ज़िन्दगी से चुराएंगे...
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जिंदगी की जो बात कही याद रहेगी ...
एक कॉफी तेरे नाम की हमें हमेशा याद रहेगी ...
चुस्कियों में जो घोल दे दोस्ती का मज़ा ...
ऐसी कॉफी ता-उम्र दिल के पास रहेगी ...
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तसवीरें सिर्फ़ एक कहानी लिखती हैं ...
हकीकत कुछ और ही कहती हैं ...
तस्वीर से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत हो तुम...
दिल से देखो तो नज़रें ही सब बयान करती हैं...
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कोई साथ दे न दे, चलना आता है मुझे...
हर आग से वाकिफ हूँ, जलना आता है मुझे...
कश्ती के डूबने का डर नहीं है ...
मझधार और भँवर से निकलना आता है मुझे...
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जो नहीं आता उसका इंतज़ार क्यों होता है ....
किसी के लिए अपना यह हाल क्यों होता है ...
वैसे तो इस दुनिया में काफी चीज़ें प्यारी है ...
पर जो नहीं मिल सकता उसी से प्यार क्यों होता है ...
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इरादों की कोई सीमा नहीं होती...
इश्क़ की कोई तहजीब नहीं होती...
बस हम कदम बन के चले संग कोई...
तो कोई मंजिल कठिन नहीं होती...
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इत्तेफाक नहीं हैं ज़िन्दगी की ये राहें ...
तजुर्बा-ऐ-मोहब्बत भी आसान नहीं है...
काश के अरमानों के पर होते...
के जुस्तजू करना भी आसान नहीं है...
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हर्फ़-ऐ-अश्क ग़र हम रोज़ लिखा करते...
तो अब तक पैमाना-ऐ-ग़ज़ल बन गई होती...
काश आपके आगोश में होता कुछ ऐसा नशा...
के जुस्तजू हमारी हकीकत बन गई होती...
आशिक़-ऐ-दिल की जुबां से ग़र अर्ज़ किया करते...
ख्वाबों की ताबीर ख़ुद-ब-ख़ुद हो गई होती...
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कुछ लफ़्ज़ों के फासले हैं...
हिज़ाब--हया ओढ़े हुए...
निगाहों की ग़र समझें तो...
हाल--दिल यूँ ही बयान हुए...