Wednesday, May 18

अर्ज़ किया है...

मुड़ के जो देखा हमने तो ज़माने के गम दिखे ...
खुशियों में सिसकियों के कारवां दिखे ...
आँखें मूंदें ग़मों की इस कदर इबादत करते रहे...
के इल्म ही ना रहा के खुशियों के जनाज़े निकलते रहे ...
थमे जो शाम-ऐ-ज़िन्दगी में, तो एहसास-ऐ-रूह हुआ ...

तो गुज़िश्ता-ऐ-बयान छोड़, मैं आखिर रुख-ऐ-मुस्तकबिल हुआ ...