गर इन नज़रों की ज़ुबां होती
तो लफ़्ज़ों में क्या कुछ बयां करतीं...
ये कहतीं ...
रूबरू होते हैं रोज़ तुमसे
फिर भी सब ख़्वाब सा लगता है
हर नए लम्हें की पहली मुलाकात
बरसों पुराना साथ सा लगता है
धड़कन थम सी जाती है
रूह गुलज़ार लगने लगती है
वही सालों पहले सी मोहब्बत
रुख़सार सुर्ख़ कर जाती है
तीस साल की दूरियां इबादत में गुज़री
हर धड़कन पर मोहब्बत का साया सा है
बहुत दूर निकल आयें हैं हम मगर
दिल उस फ़ाटक पर ठहर सा गया है
...दिल वहीं, उस फ़ाटक पर ठहर गया है!!