अश्कों को हम अपने समझाते रहे...
खुशनुमा महफ़िल में ना आ, तनहाइयों में आया करो...
ज़माने से छुपे ग़मों की यूँ नुमाइश ना करवाया करो ...
निगाहों से छलकती उस नमी का कुछ यूँ जवाब आया था ...
महफ़िल तो खूब सजी थी, ऐ ज़ालिम ...
हुस्न और जाम का जश्न भी था सजा हुआ...
सिफर की ओर अकेले तकते हुए जो देखा तुझे ...
दर्द के सफर में साथ देने का मन हो आया था ...
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