एक दोस्त ने फिर ज़माने से परे होने का फैसला किया तो हमारी ओर से यह पैगाम रुखसत हुआ...
आब्रतारी से निकल, दीदार-ए-आफताब का इन्तेज़ार रहेगा...
अहाल-ए-दुनिया को हो न हो, इस परस्तार को हर पल आपका इन्तेज़ार रहेगा ...
अहाल-ए-दुनिया को हो न हो, इस परस्तार को हर पल आपका इन्तेज़ार रहेगा ...
जवाब आया...
इन्तेज़ार गर करना है तो खुदा के दीदार का कर...
फ़कीर के इस्तकबाल से भला किसी को क्या मिला है...
हमारा कहना कुछ यूँ था...
आँखें मूंदे, सालों से खुदा की इबादत का अंजाम जी रहे थे ...
सोचा, चश्म-ए-तर से अब एक फ़कीर का ही सजदा कर जी लें...
एक रूखा सा पैगाम उनकी तरफ से आया...
फ़कीर का सजदा ना कर के फ़कीर की झोली खाली है...
गर गम-ऐ-गफलत में जीना है तो शैतान को याद कर...
इस बेरुखी पर हमारा जवाब कुछ यूँ था...
इबादत गाह में सजदा कर देख लिया...
अब फ़कीर के दर माथा टेकने की बारी है ...
खुदा से ही मांगी थी मन्नत-ए-मोहब्बत आपकी खातिर...
इन्तेज़ार कर रहे हैं, पर झोली अब भी खाली है....
उनके जवाब का इन्तेज़ार रहेगा ...
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