सहर होते ही आगोश-ए-तस्सव्वुर की गिरह से जो निकले...
तो उनके मुस्कुराते खुर्शीद-वश का दीदार हुआ...
देखते, मुस्कुराते, निगाहों से बातें करते, पल कुछ यूँ बीते...
इल्म ही न हुआ के ख्वाबीदा थे या दर-हकीकत पैकर-ए-महबूबी हुआ...
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हर्फ़-ए-अश्क गर रोज लिखा करते...
इन पन्नों में कायनात सिमट गयी होती...
खुदा-ए-मौत का गर यूँ करते सजदा...
अब तक शहादत नसीब हो गयी होती...
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न चाहते हुए भी रश्क होता है उनसे...
जिन्हें बेपनाह मोहब्बत उनसे नसीब होती है...आलम यह है कि हर पल इबादत हम किये जाते हैं...
और आगोश-ए-जन्नत उन्हें उनसे नसीब होती है...
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