Friday, April 20

उस शहदायी की याद में पिरोये कुछ मोती...

किस परस्तार का दिल, उसे ज़ेहन से भुलाने के लिए याद करता है...
यादों की डोर से खिंचा चला आये वोह शेहदायी, हर पल ये ही दुआ करता है...
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न खुदा को पाने की तम्मन्ना है हमें...
न दीवानगी की उनसे कोई उम्मीद...
है तो सिर्फ अरमानों की इस मय्यत पर...
उस फिदायी की एक नज़र के कफन की उम्मीद...
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हमने न कभी तुमसे मुलाकात का वादा चाहा...
दूर रह कर तुम्हे तुमसे भी ज्यादा चाहा...
याद आये और भी शिद्दत से तुम ...
भूलने का तुम्हे जब भी इरादा करना चाहा...
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पल पल हँसते, मुस्कुराते, 
उसके हर खुशनुमा, गमजदा लफ्ज़ को हम तवाज्जू दिए जाते है...
ए  सौदाई, एक अश्क भर के लिए, 
निगाहों में बसी इस रंज-ए-फुर्वान को एक नज़र तो दे जाते...
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इश्क करने का गुनाह हमने किया उनसे, जो न हमारे थे और न होंगे कभी...
मर मिटना तो हमारी फितरत में था, के बर्बादी का सबब वोह कभी थे ही नहीं...
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लम्हा-ए-हस्ती इस इन्तज़ार में बिताये जाते हैं हम...
के कभी किसी एक पल पर उस हरजाई की इज़हार-ए-मोहब्बत मर्कूम होगी...

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