Saturday, April 21

आक्रोश



जिंदगी... हर कदम... एक नयी... जंग है...


सुलगते हैं लफ्ज़ लबों पर यूँ...
दिल-ए-हाल बयान करें किस से...
काश के होता दिल के करीब कोई ...
समझता कोई हमें एक नज़र देख कर सिर्फ...
कैसे अर्ज करें, के मेरे आतशीं-ए-आक्रोश की कोई भाषा ही नहीं...

आ कर चले जाते लोग एक पड़ाव समझ कर...
रोम रोम कुर्बान करते हैं हम...
और कतरा कतरा ले जाते हैं वोह...
रोंद देते हैं इस दिल का हर मंज़र...
कैसे बताएं, के मेरे तल्ख़-ए-आक्रोश की कोई परिभाषा ही नहीं...

कोई ख्वाइश नहीं इस जिंदगी से अब...
समय बस गुजार जाये किसी कदर...
तमन्ना तो बहुत थी चंद खुशियाँ बटोरने की...
न मिला वोह हमसाया जिसकी तलाश थी..
कैसे जताएं, के मेरे हुज्न्ल-ए-आक्रोश की कोई तस्वीर ही नहीं...

दायरों में बांधें बस सिसकते हैं हम...
खुस में सिमट सिमट घुटते हैं हम...
घुटन छोड़, बंधन तोड़ जीना चाहते हैं हम...
जिंदगी में एक आश्ना, एक मकाम पाना चाहते हैं हम...
कैसे किस से ज़ाहिर करें, के मेरे तेश-ए-आक्रोश की कोई सीमा ही नहीं... 

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