Wednesday, May 2

कुछ एहसास...


सिले हुए हैं लब और लफ्ज़ हमारे कैद हैं...

झुकी हुई हैं निगाहें और अश्क हमारे कैद हैं...

जज़्बातों का ज़लज़ला सा है दोनों के जेहन में ...

इबारत क्या करें वोह जो खुद ही में सिमटे कैद हैं...

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जाने कैसे किसी पे कभी ऐतबार हो जाता है...

अनजाने में कोई अजनबी खास हो जाता है...
खूबियों से ही नहीं होती मोहब्बत सदा..
अक्सर कमियों से भी बे-इन्तेहाँ प्यार हो जाता है...


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गुज़रती है जब पेड़ की शाखों से सरसराती हलकी सर्द हवा...
हौले से कहती है आ चल ले चलूँ संग तुझे उनकी बाहों की ओर...
मन मचल तारों से घिरे चाँद की ओर देख सोचता है...
परछाईं देखी थी रोज उनकी, आज हवा संग रुख है उनकी ओर...

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