Tuesday, August 14

चंद बिखरे शेर

एक दोस्त ने कुछ अर्ज किया तो अपने आप यह "चंद शेर" बिखर गए...


हवा से पलटते पन्नों को जो देखा, यूँ लगा जिंदगी पलट रही है...
मुड के जो देखा, तो उनके लौटे हुए क़दमों के निशाँ दिखाई दिए...

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होते नहीं ये रिश्ते अजीब, कुछ भटके हुए संगदिल इसे ये रूप दे जाते हैं...
कुछ वफ़ा कर शहीद होते हैं, कुछ बेवफाई कर भी रिश्ता निभा जाते हैं...

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रिश्तों की गहराईयों को जी कर समझ पाते तो ज़रूर समझा जाते...
तन्हाई से है एक गहरा रिश्ता हमारा, कोई और होता तो उससे भी निभा जाते...

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रिसते हुए दिल के खँडहर की ओर न देख आहें भर ए-काफिर...
तारीफ उस गुलिस्तान की कर जो कभी आबाद हुआ करता था...

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गिले शिकवे उनसे करो, जो खुली निगाहों में बस्ते हैं...
झुकी निगाहों में ख्वाबस्ता, तो बस मिस्ल-ए-दूद हुआ करते हैं...

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अश्कों से वा-बस्ता हम नहीं, के बौछारों से तो सिर्फ ताल बना करते हैं ...
अश्क भरे, बाँध बांधे बैठे हैं, पलकें खुलें, के बहते दरिया से ही बैहर बना करते हैं...

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क़त्ल कर ज़माने ने कई बार चुराया है ये दिल मेरा...
किसी के शायराना लफ़्ज़ों की महक ही है जो अब तक बस रही है...



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