Sunday, August 5

मुख़्तसर मुलाकात...


इत्तेफाकन मिले थे हम तुम
मुख़्तसर सी थी वोह मुलाकात
जिंदगी के एक खूबसूरत मोड़ पर  
लबों पर थी गुजरी हर छोटी बड़ी बात

हम तुम एक दूसरे की 
निगाहों, बातों में खोने लगे
न जाने क्या हुआ दरमियान
के पल पल के राज़ खोलने लगे

तेरी आँखों की मदहोशी 
मन में मेरे सजने लगी
ख्वाब तुम्हारे, सपने हमारे 
पलकें मेरी संजोने लगी 

फासले भले ही हों दरमियान
रूहें करीब होने लगी 
ख्यालों के मेल कुछ यूँ बने 
राहें फिर एक होने लगी 

अरमानों की सुर्ख सेज पे 
मोहब्बत की दस्तक होने लगी
रूमानी हुआ दोस्ती का रिश्ता
खुशियाँ नसीब होने लगी  

न जाने हुआ क्या कैसे क्यों
अचानक मुस्कुराहट अश्क बनी
रूठे तुम हमसे इस कदर 
के नजदीकियां दूरियां बनी 

अब तक छायी धुन्धल्की 
हौले हौले से छंटने लगी
कभी संभाली तम्मनाएं
अब फिर से बहकने लगी हैं 

हर दस्तक, हर आहट पर
निगाहें उठने, मचलने लगी
तेरे आने के इंतेज़ार में  
घड़ियाँ नागुज़र लगने लगी

आ जा, शुष्क सुर्ख आँखों से अब  
अश्कों का बयार नहीं बनता
निगाहें टिकी हैं हर उस राह पर 
तेरा कारवाँ है जिस राह गुज़रता 

बहुत याद आती है, रह रह तडपाती है...
वो इत्तेफाकन हुई मुख़्तसर मुलाकात...


1 comment:

  1. very nice .........deep thought...........keep it up

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