Wednesday, March 13

लफ्ज़-ए-जाँ



महकती हवाओं का रुख भी वही है,
फिजाओं का खुशनुमा आलम भी वही है,
रूबरू हुए एक असरा है बीत चुका,
निगाहों में इंतज़ार आज भी वही है...

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तिनकों के सहारे ज़िन्दगी नहीं कटती, 
ख्वाइशों के सहारे आशिकी नहीं मिलती, 
हाथ बढ़ा ले इस परस्तार की ओर,
सिर्फ लफ़्ज़ों के सहारे जन्नत नहीं मिलती...

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ख्वाईशें दीदार की मोहताज नहीं होती, 
दिल की बातें लफ़्ज़ों की मोहताज नहीं होती, 
साज़-ए-दिल के तराने नहीं हैं छिड़ते 
जब तक रूह से रूह की गुफ्तगू नहीं होती ... 

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काश के वो लौट आते मुझसे ये कहने
होते हो तुम कौन मुझ से बिछड़ने वाले
ज़िन्दगी के मायने ही कुछ और होते
होते गर उस काफिर के कदम लौटने वाले 

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आँखें खोलते हैं तो उनका अक्स पलकों पर निखरता है 
आँखें बंद करते हैं तो उनके ख्वाब पलकों पर सजते हैं
क्या कहें कुछ ऐसा नशा छोड़ गए हैं वो
के हर सांस में उनकी खुशबू का गुमान होता है

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लफ़्ज़ों से ख़याल कभी बयान होते नहीं
अश्कों से दर्द कभी ज़ाहिर होते नहीं 
नज़रों में मेरी एक पल झाँक कर तो देखो
अक्स-ए-इश्क की पलकों पर नुमाइश होती नहीं

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ज़िन्दगी की इन राहों में 
मोहब्बत करने वालों की कद्र नहीं होती
पथरा जाती हैं निगाहें इंतज़ार में 
पर इबादत-ए-इश्क ख़त्म नहीं होती

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भरी महफ़िल में हमें यूँ बे-पर्दा न कर ऐ काफ़िर
कहीं ये छलकते अश्क बज़्म-ए-तरब को सुर्ख न कर दें
ज़िन्दगी की राहों में हमें यूँ तन्हा न कर ऐ ज़ालिम
कहीं ये छलकते अश्क कोस-ए-कज़ाह को स्याह न कर दें






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