माना स्त्री ही है जननी, स्त्री ही है भागिनी,
माना स्त्री ही आत्मजा, स्त्री ही धर्मभागिनी,
हर रूप से परे हर स्त्री हैं भिन्न, सीखो यह ज्ञान,
क्यों समरूपता में नहीं देख पाते स्त्री की एक अद्वितीय पहचान??
अनात्मवाद-सम्बन्धी लेते भर भर दहेज,
फिर भी न रख पाते एक स्त्री को सहेज,
सात फेरों में लेते प्रतिपालक होने का प्रण,
क्यों करते हैं फिर अर्धांगिनी के अस्तित्व का सामूहिक चीर हरण??
स्त्री मुक्ति, पुरुष से समानता का करते जो प्रचार,
दुर्भाग्य से करते वही कटु शब्दों से आत्मा पर प्रहार,
भूर्ण हत्या है शोषण का सिर्फ एक ही अपरिमेय प्रकार,
क्या नहीं होता जीवन के हर मोड़ पर स्त्री पर अक्षम्य अत्याचार??
करते हैं पुत्री बहन भगिनी के तन मन का बलात्कार,
अनसुनी करते हर क्षण स्त्री के अंतर्मन की चीत्कार,
घर, दफ्तर, स्कूल, कॉलेज में पग पग होता यौन शोषण,
क्या पिता, पति, भाई, पुत्र, बंधू को है मिला यही अपूर्व शिक्षण??
मानता है दैव्य रूप स्त्री को सर्व संसार,
जानते हैं स्त्री बिन न धरा, न स्वर्ग का है सार,
अधूरी है अवनि, अधूरी है स्वर्ग की माया,
क्या नहीं है स्त्री बिन अधूरी आत्मा, अधूरी हर प्रतिछाया??
स्त्री बिन है हर पुरुष का हर संभव अधूरा,
पुरुषत्व बिन जैसे स्त्री अस्तित्व भी न होता पूरा,
चाहते हो स्त्री के हर रूप से पूर्ण सम्पूर्ण समर्पण,
क्यों झिझकते हो फिर करने से उस पर अपना सर्वस्व अर्पण??