Friday, September 14

ज़िद ना करो


अर्ज है पैगाम-ए-उल्फत आरज़ूओं के दामन से, 
आतिशीन लम्हों को भुलाने की ज़िद ना करो...
बड़ी मुश्किल से गुज़रे हैं जुदाई के वो पल,
तन्हाई में बसर करने की ज़िद ना करो...
गुजरी है ग़मगीन सालों ये शाम-ओ-सहर,
खुशियों का दामन छुड़ाने की ज़िद ना करो...
जिए हैं हर पल यादों में तुम्हारी,
ख़्वाबों को दफनाने की ज़िद ना करो...
मुस्कुराहट है इन लबों पर आज,
इनसे थरथराने की ज़िद ना करो...
थमे हैं, पलकों पर तवक्का-ए-अश्क लिए,
इनकार-ए-उल्फत की ज़िद ना करो...  
आये हो पहलू में मुद्दतों के इंतेज़ार के बाद,
निगाहें फेर, लौट जाने की ज़िद ना करो...
निहायत ही अज़ीयत से बढ़े हैं कदम आज,
आसार-ए-इश्क में इन्हें लौटाने की ज़िद ना करो...


तवक्का-ए-अश्क = Tears of Expectation

अज़ीयत =  Difficulty
आसार-ए-इश्क = Ruins of Love

No comments:

Post a Comment