Saturday, July 7

फिज़ा...



सब्ज़ पहाड़ों पर उतरे मेघ, कोलाहल करते झरने 
दरख्तों की शाखों पर बैठे परिंदों की चहचाहट
बारिश की बूँदें और उन संग सरसराती सर्द हवा 
इनके बीच ज़मीन पर उसके पैरों की हौली सी एक आहट


मूंदी हुई आँखों में दिखा उसका मुस्कुराता हुआ अक्स 
महकती, सिमटती, भीगी काया का पूर्ण सम्पूर्ण समर्पण
हसीन चेहरे पर बिखरी जुल्फों में मेरे हाथों का समाना  
शरमाते हुए नज़रें मिला उसका करना खुद को मुझे अर्पण 


बाहें फैलाए, उसका मेरे करीब आ, मुझ में समाते जाना  
अपनी बाहों में उसके होने का एक नर्म नम सा एहसास
अचानक ख्वाब टूटा, पलकें खुली, रात के तूफानी अंधेरों में 
पाया के न वोह थी, न ही उसकी गर्म साँसों का नम एहसास 


अब न वोह थी, न उसका साथ, न उसके आने की कोई आहट
जिंदगी गुम है अंधेरों में, साथ है सिर्फ तन्हाई का आलम
न रहा उस संग झारोंकों से देखा फिजा का वोह हसीन मंज़र
बचा है सिर्फ पलकों पर सजे आब-ए-चश्म का यख-बस्ता आलम


कुछ ऐसा था...
... जिंदगी के साथ झरोकों से झांकती रूमानी फिज़ा का आलम
... जिंदगी के बाद पलकों पर सजे आब-ए-चश्म का यख-बस्ता आलम 



सब्ज़ = Green
आब-ए-चश्म = Tears
यख-बस्ता = Frozen 


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