Monday, July 9

जिंदगी...



गुज़र रही है जिंदगी एक इम्तेहां के दौर से,
ना मायने समझ आते है, न रास्ते ही सूझ पाते हैं...
किताब के पन्नों सा पलटता है हर दिन,
और रोज एक अनोखे मंज़र के दीदार हो जाते हैं...
कदम-दर-कदम, लम्हा-दर-लम्हा,
हकीकत यादें बनती हैं, ख्वाब चूर हो जाते हैं...
किसी के करीब जाने की सोचें भी तो कैसे,
जब दिल-अज़ीज़ भी हर घड़ी दूर, और दूर हुए जाते हैं...
खुद को खो बैठे हैं राह-ए-दहर पर,
क्या खोजें जब तारिक-ए-हयात को ही मस्सर्रत की तलाश है...
एहतिमाम-ए-जिंदगी को इलज़ाम क्या दें,
जब उनकी यादों के साये तले अपना वजूद तहलील हुआ पाते हैं...




राह-ए-दहर = Path of Life
तारिक-ए-हयात = Loneliness of Life
एहतिमाम-ए-जिंदगी = Planning of Life
तहलील = Lost, Immersed

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