Tuesday, January 10

कसक-ए- मोहब्बत

मोहब्बत को नाराजगी का हिजाब पहना दिया...
कसक-ए-मोहब्बत को एक कफ़न ओढा दिया...
रुखसती हमारी न नाराज़गी का सबब है ना वीरानियों का निशाँ...
यह तो सिर्फ एक पैगाम-ए-इबादत है...
खुदगर्ज़ नहीं है हम ए जिंदगी, कि जिंदगी को जिंदगी से दूर करें...
समझ सको तो समझ लो इन इशारों को तुम...
हमसफ़र नहीं हो सकते अगर तो क्या ...
हिजाब-ए-हया ओढ़े हमकदम बन तो हैं साथ...


निकल पड़े हैं अब अकेले जिंदगी की राहों पर...
न-ज़ाहिर कसक-ए-मोहब्बत दिल में छुपाये...
जब भी सोचा कि न सोचेंगे तेरे बारे में ए काफिर...
हर बार इस कमबख्त दिल ने कोई न कोई बहाना कर लिया...
जानते हैं तो सिर्फ इतना, के मुड कर जब भी यादों से रूबरू होंगे...
यही सोचेंगे कि जिंदगी गुजार गयी, रिश्ते कायम करते...
मुड मुड जो देखा सूनी राहों को, तो मोहब्बत का कहीं निशाँ ही न था...


मोहब्बत का कहीं निशाँ ही न था...

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