Wednesday, January 18

आरज़ू

हम यूँ ही गलियारे में खड़े कुछ सोचते हुए नजारों का आनंद ले रहे थे, कि इस कलाम ने हमारे मन में दस्तक दी...


घर के गलियारे से जब आसमान कि और देखते हैं...
सेंकडों तारों के बीच एक चाँद दिखाई देता है...
उसी गलियारे से जब नीचे की ओर देखते हैं ...
अनगिनत रास्तों मिएँ एक घार का रास्ता दिखाई देता है...
राहों से हमारी गुज़रे हैं बहुत से रहगीर ...
पर न जाने क्यों सिर्फ आपको पाने कि आरज़ू किये जाते हैं ...


कहते नहीं हैं हम कुछ मगर, बस दोस्ती निभाए जाते हैं...
इज़हार-ए-इश्क नहीं करते, बस शेर अर्ज किये जाते हैं...
रूबरू होने कि तमन्ना लिए, बस कुछ ख्वाब संजोये जाते हैं...
आगोश में आपके कुछ लम्हे पाने की तमन्ना किये जाते हैं...
नज़रों से हमारी गुज़रे हैं बहुत से रहगीर ... 
पर न जाने क्यों उन सब में बस आपका ही चेहरा दिखाई देता है...


बस आपका चेहरा देख, आवाज़ सुन, आपकी आरज़ू किये जाते हैं...

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