Sunday, January 13

रूह-ए-मोहब्बत



मुद्दतें हुईं उनका पैगाम मिले
मुद्दतें हुई उनकी आवाज़ सुने
मुद्दतें हुईं उनसे रूबरू हुए
आज दरमियान हैं फासले
पर बस हैं कुछ ही पल गुज़रे
उनकी रूह को महसूस किये

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उस काफिर के एक पैगाम की आस में
क़फ़स-ए-कज़ा में सांसें लिए जाते हैं
राज़-ए-उल्फत यूँ तन्हाँ कर गए हमें
यादों में उनकी हर पल फना हुए जाते हैं

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सारे शिकवे उनके हमसे हैं
सारे गिले उनके हमसे हैं
झाँक लेते गर दिल में वो अपने
इल्म होता के सारे ख़याल हमारे हैं

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टूट कर चाहा दिल-ओ-जान से हमनें उन्हें
और वो रूह को पारा पारा कर बिखेर गए 
चले थे उनके ग़मों की मय्यत सजाने
न इल्म हुआ...
कब वो हमारी खुशियों को दफन कर गए  

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लफ़्ज़ों में उनके आज भी सिर्फ इनकार है,
खामोशियाँ न जाने क्यों फिर भी बेकरार हैं,
बसाये हैं वो हमें महराब-ए-जान में कहीं,
न यकीन होगा उन्हें...
पर रूह से रूह का ये एक खामोश इकरार है...





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