Sunday, January 13

नगमे



शाम-ओ-सहर दोहराए वो तन्हाँ नगमे 
अब किस से अर्ज करें,
देखे हैं जब इन निगाहों ने,
फुवाद-ए-खुर्शीद के घनघोर अँधेरे

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एक बात जो लबों तक न ला सके कभी
निगाहों से छलकी पर वो पढ़ न सके कभी
लफ़्ज़ों की डोर को न थामना चाहा था हमनें
पैगाम उनके दिल तक न पहुंचा सके तभी

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जज्बा-ए-मोहब्बत रखने वाले टूटते नहीं
रूह निकल जाती है लेकिन सांसें छूटती नहीं
कर लें कितने भी सितम वो इस दिल पर
थरथराते लबों से आह निकलती नहीं

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थरथराते लबों पर एक अनकही सी बात है
छलकती निगाहों में उन्हें पाने की प्यास है
लफ़्ज़ों में नगमा-ए-हसरत ब्यान कर नहीं सकते
आहों में हमारी आज भी उनमें समाने की आस है

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रातें बीती, दिन बीते,
तेरे ख्यालों, हसीन यादों में कई नम पल बीते...
तेरे आगोश में जितने न बीते थे,
उससे कहीं ज़्यादा तेरी आरज़ू में पल बीते...

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शौक़ीन हसरतों का मोल किया नहीं करते
रहगुज़र हसरतों के शौक रखा नहीं करते
राह के बीच मील का पत्थर हैं हम यारों
काफिले थमते हैं, पर मुसाफिर यहाँ बसा नहीं करते...


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