Thursday, January 10

एक खामोश फ़ुगां



हमनें अर्ज़ किया...

"आज फिर आईने ने पूछा मुझसे
तेरी पलकों पर थमी नमी सी क्यों है...
जिस चाहत में खुद को भुला दिया
उसी चाहत में आज कमी सी क्यों है..."


किसी ने एक सवाल अर्ज़ किया...

"आईना दिखाता है मुझे हर वक़्त एक नया चेहरा...

उसकी आदत भी आदमी सी क्यों है??"


हमारा जवाब था...

"आईना गुस्ताख हो नहीं सकता 

गुस्ताखी तो देखने वाले की है...
नकापोश है हर शक्स यहाँ 
नासमझी समझने वाले की है..."


इसके जवाब में उस ओर से एक और सवाल आया...


"में समझ कर भी नासमझी को समझ न पाया 
तराश कर परख कर भी धोखा खाया 
और फिर आइना भी बेईमान निकला
इसमें इस गरीब की क्या गुस्ताखी है?"


हमारा जवाब था...

"हर शक्स को समझना हर किसी के बस में नहीं
हज़ार चेहरों पर जब एक नकाब का साया हो...
आइना भी वही सूरत दिखाया करता है
गुस्ताख की निगाह में जिसका अरमां हो..."


उन्होंने अपनी बेबसी और मायूसियत कुछ यों अर्ज़ की...

"नकाब के पीछे का चेहरा में देख न पाया 
उसे भूल कर भी में प्यार को भुला न पाया 
क्या गुस्ताख थीं मेरी निगाहें, 
के शिद्दत में मेरी कमी सी है
आज सुबह आँख खुली...
और क्या था बस आँख में फिर एक नमी सी है
हाँ, शायद आज भी उसकी कमी सी है
काश रोक लेता में वक़्त को उसके हाथों 
पर गुस्ताख इस वक़्त की आदत भी आदमी सी है 
आज फिर आँख में नमी सी है..."


उन्हें समझाते हुए हमने अर्ज़ किया...

"इश्क के मायनों को नकाबपोश गर समझ पाते
तड़पते दिल खुद को न गुनाहगार मानते
पलकों पर थमे अश्कों में अक्स न देखा करते 
यादों में उनकी यूँ दरिया बहाया न करते 
काश के वक़्त को अपने हाथों में थाम सकते 
तो बैहर किनारे रेत में न यूँ तन्हाँ आहें भरा करते"


उनके तड़पते दिल को करार न आया तो उन्होंने फिर अर्ज़ किया...

"किनारे रेत पर तन्हाँ आहें भरते रहे
मेरी रूह उस रेत में उसकी याद पर भटकती रही
फिर दूर से दिखा मुझे एक मृग मिचिका
अब क्या करता अल्लाह का ये गरीब बंदा
जो दिखा वो भी एक भ्रम ही था
अब अक्स को क्या दोष देना
शायद अश्कों में ही उसका वजूद था
मैं शायद प्यार को निभा न पाया ऐ ग़ालिब
या मेरे प्यार में मेरे प्यार को ऐतबार कम था
बस और क्या था...
आज सुबह फिर आँख खुली
और अब तक आँख में एक नमी सी है
चाहे जीत लूं मैं पूरी कायनात
हाँ आज भी शायद उसकी कमी सी है
कैसे रोकना चाहा मैंने वक़्त को
वक़्त के ज़ख्म से भी मैं कमबख्त समझ न पाया
के वक़्त की आदत भी तो आदमी सी है..."


हमने फिर समझाया...

उनकी बेरुखी का खुद को न यूँ दोष दे ऐ फिदायी 
गुनाहगार हैं वो जिन्हें तेरी मोहब्बत न समझ आई
रेत के कणों को संजो न यूँ खुद को बेज़ार कर
निगाहों से धुलके इन मोतियों को न यूँ बर्बाद कर 
भ्रम है हर क्षण यहाँ, नकाब पहने है हर शक्स 
गुज़रते वक़्त को आईने में दिखा अपना ही खुद्दार अक्स
न ज़ाया कर अपने अरमानों को यूँ किसी काफिर पर 
सब्र कर, होगी कभी किसी काबिल को तेरी रास्ती की कदर 
  
    

यह सिलसिला ज़ारी रहेगा....





एक खामोश फ़ुगां = A Silent Cry of Distress
फिदायी = Lover
बेज़ार = Weary, Angry, Disgusted
ज़ाया = Waste
काफिर = Infidel
रास्ती = Truthfulness








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