Thursday, November 1

इन्तेहाँ



एक नवम्बर की यह सर्द सुबह

बहुत कुछ याद दिला गयी
कुछ भीगा भीगा सा एहसास
कुछ तम्मानाएं जगा गयी

हकीकत थी अरमानों की हर घडी 

जो न जाने कब ख्वाबिदा हो गयी 
संग था उनका हर वक्त हर कदम
के न जाने कब क्यों राह बदल गयी 

वही यादें उनके जहन में भी होंगी

जो आज हमारी पलकें भिगो गयी
कभी उनसे रूबरू हो बातें करते थे
आज उनकी तस्वीर भी रुला गयी

बेजान रूह निसार हुई गिर्द हमारे 
बटोरने गए तो हथेलियाँ छिल गयी
आब-ओ-चश्म का दरिया यूँ बहा 
नम सुर्ख आँखें शुष्क ज़र्द हो गयी 

इन्तेज़ार तब भी था आज भी है

समय यूँ बीता के इन्तेहाँ हो गयी
सिसक सिसक आह निकलती रही 
और रफ्ता रफ्ता सांस उखड़ गयी




रूह = soul
निसार = strewn/scatter
गिर्द = around
ख्वाबिदा = Became dreams
आब-ओ-चश्म = Tears
शुष्क = Dry
ज़र्द = Deep Red
रफ्ता = slowly



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