Sunday, November 18

ख्वाईशें



ख्वाईशें जागती हैं सपनों को पंख देने के लिए

आरजूओं के दामन से मोहब्बत के फूल झराने के लिए
अंधेरों के दायरे हैं उजालों की लकीरों के भीतर
झरोकों से झाँकने की देर है फलक को छूने के लिए


देखा है ख्वाइशों को टूटते, सपनों को दफन होते हुए

अरमानों की मैय्यत सजी है सुर्ख दामन ओढ़े हुए
बेबसी की दीवारों ने बांधा है दायरों को इस कदर 
तनहा बैठे हैं रंज-ओ-गम के पैमाने छलकाते हुए


सोचते थे उनके अक्स को निगाहों में कैद कर देंगे  

न जानते थे वो बेबसी, बेकसी को यूँ आगोश में कर देंगे 
बेपनाह मोहब्बत कर दायरों को तोड़ा जिनके लिए
न जानते थे एक दिन वो ही हमारी रूह दफन कर देंगे 


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