Sunday, November 18

साए



मुंदी हुई पलकों के झरोकों से

रोज़ बिखरते हैं उनकी यादों के साए
चाहते हैं उनसे निगाहें मिलाना
तस्वीर से उनकी हैं रूबरू होते आये

आगोश-ए-उल्फत में थामे हैं वो उन्हें

लबों पर है खामोशी का पैगाम हमारे लिए
कशिश-ऐ-मोहब्बत है निगाहों में उनकी खातिर 
दिल में छुपी है अथाह नफरत सिर्फ हमारे लिए


बीतते थे शाम-ओ-सहर उनसे गुफ्तगू करते 

आज दो लफ्ज़ सुनने को तरसते हैं हम
तराशते थे जिन मुस्कुराते लबों को कभी
आज उसी आफताब को छूने को तरसते हैं हम

ख़्वाबों में होती है रोज़ इबादत बीते लम्हों की

सहर होते ही चश्म-ए-जादां-में धूआँ धूआँ हो जाते हो
थाम लो बढ़कर हमारी आरज़ुओं को पल भर के लिए
सर्द शब्-ए-खामोश में काश हमें भी पश्मीनाई एहसास हो



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