Sunday, November 18

ख़ाक



रूबरू हुए तस्वीरों से उनकी
दिल के तार झनझनाने लगे
कहना तो बहुत कुछ चाहा हमने
मगर लफ्ज़ लबों पर आ रुकने लगे

रुखसती हुई है जबसे उनकी
गुमसुम से अंधेरों में हम रहने लगे
ढूढना तो बहुत कुछ चाहा हमने
मगर रोशन अरमान धूआँ होने लगे

देखना चाहते हैं एक झलक उनकी
इससे पहले के रूह छूटने लगे
शाम-ओ-सहर राह तकते उनकी
साँसों की टूटती डोर थामने लगे



मौत को उनके आने तक रोकना चाहा हमने
मगर मैय्यत के फूल बिखरने लगे 
पलकें किसी तरह खोले रखी थी हमने 
मगर उनके आने तक हम सुपुर्द-ए-ख़ाक होने लगे 




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